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Friday, September 9, 2011

स्वर्ण युग अब दस्तक देगा



कूद पड़ो इस महासमर में
ज़ख्मी जज्बातों को दो चिंगारी
अगर थम गए अब कदम तुम्हारे
लूटते रहेंगे ये भ्रष्टाचारी.
शिथिल चेतना में जोश भरो
अब त्याग मांगती धरती प्यारी,
धीमें स्वर में ना सुलझेगी
गोली खाने की कर लो तैयारी.
                                          इस आज़ादी के हवन कुंड में
ज़रूरत नही घृत,तेल और बाती
समय,श्रम और शोणित अर्पित कर दो
रण-बांकुरे करके अपनी चौड़ी छाती
दशकों की अर्ध आज़ादी मे
भारत का अस्थि मात्रा बचा है.
हैवानों ने शोणित माँस  नोच नोच कर
देश में बस द्वेष भरा है.
ये जो चरण उठे हैं तेरे,
स्वर्ण युग अब दस्तक देगा;
अडिग हो बढ़ते जाओ ,
भ्रष्टाचारी नतमस्तक होगा. !!!!!!!
:- कन्हैया

Wednesday, January 26, 2011

आज़ादी सिसकती गणतंत्र रो रहा


थे मसीहा विश्व का,
आती थी नाम हर जवान पर पहला
सात्विकता छिपी थी रग-रग में,
कीर्ति- कालीमा कौंधती थी घर-घर में;
फिर क्यूँ लोग कराह रहा ?
आज़ादी सिसकती गणतंत्र रो रहा.

नेता देश की
जागीर बन गया
मानो देश की तकदीर संवर गया,
पर कुर्सी केलिए नग्न नृत्य है हो रहा,
 आज़ादी सिसकती गणतंत्र रो रहा.

भाषणों से ही
जन-जन का दिल है फूल उठा
आश्वासनों की क़तारों से मन है झूम उठा,
पर मुँह के नीवाले भी नसीब नहीं हो रहा
आज़ादी सिसकती, गणतंत्र रो रहा.

जातिवाद का उन्मुक्त अश्व
स्वक्षंद विचरण कर रहा
कहीं धर्म के नाम पर भाई-भाई है लड़ रहा
राजनीति में है स्वार्थ सिद्दी का बिगुल है बज रहा
आज़ादी सिसकती गणतंत्र रो रहा.

कर्णधार देश के रहम कीजिए,
बहुत चली एक आपकी शर्म कीजिए,
देख आपकी कर्तव्य परायनता,
नयनें अश्रु बहा रहा,
आज़ादी सिसकती गणतंत्र रो रह.

वक़्त है अब भी
आप वो शमशीर संभालें,
इस गरिमा मंडित देश की तकदीर संवारें,
आपसे जन-जन अब है उब रहा,
आज़ादी सिसकती गणतंत्र रो रहा........
:-कन्हैया.

Friday, December 31, 2010

आ रहा नव वर्ष है


बदला फिर एक पृष्ठ जीवन का,
जगी आश नूतन मिलन का,
सहमी-सहमी सी रात दब रही अतीत के पन्नों मे,
शुखद प्रभात की आश छिपी है मन-मन में.
नव प्रभात की आश में,
विरहित मन में हर्ष है;
आह्लादित हो रहा दिल
आरहा नव वर्ष है.
उत्थान के पथ पे हो कृत संकल्प,
 आयाम नया बनाएँगे;
अपना-पराया का कारा तोड़
कदम से कदम मिलाएँगे.
बदलेंगे निष्ठुर नियति को,
गरल को सुधा बनाएँगे;
तोड़ दुर्ग बाधाओं का
विजय ध्वज लहराएँगे.
:-कन्हैया

Thursday, November 4, 2010

पावन पर्व दीवाली




दीप-दीप से ज्योति छ्लकता,
घर-घर में फैली उजियारी;
तिल-तिल से है तेज फूटता, 
पावन पर्व दीवाली आई. 
यह चेतना की ज्वार बनी, 
यह मुखमंडल की है लाली, 
तमस-तो को तिरोहित करने, 
पावन पर्व दीवाली आई. 
यह चरण-चिन्‍ह है विजय का 
और उम्मीदों की है बाती,
धूमिल धरा उद्भासित करने, 
पावन पर्व दीवाली आई. 
यह समाधान है सघन रात की, 
बन अंत अमा की आई,
उद्दाम लालसा जीवन का लेकर,
पावन पर्व दीवाली आई. 
यह आलोक अन्वेषी मानव के,
गाथा है अन्वेषण की, 
स्नेह सुधा से सिक्त वसुधा पे,
श्रिगार है दीप मालाओं की. 
यह चाँद सितारों को शर्माती
जो चमक रही बल औरों के,
अपने उज्ज्वल ज्योति से ज्योतित करने, 
आई है ये आतल पे. 
आज भी खुशियाँ सहमती
उन लाखों परिवारों से,
जहाँ माटी के दिए नदारत
और चूल्‍हे ठंढी सालों से. 
वो क्या जाने क्या होती है
होली और वैशाखी 
सहम जहाँ से लौट आती है
खुशियों भरी दीवाली. 
यह दीनता के दहन का दिन लाया,
यह वैभव की है निशानी, 
अमीरी-गरिवी का भेद मिटाने
पावन पर्व दीवाली आई.
मैत्री-मम्त्व से सनी भारत भू पर
पर्वों की प्रीत निराली,
वन,उपवन,मन सुरभित करने 
पवन पर्व दीवाली आई. 
 
:-कन्हैया कुमार