थे मसीहा विश्व का, 
आती थी नाम हर जवान पर पहला
सात्विकता छिपी थी रग-रग में,
कीर्ति- कालीमा कौंधती थी घर-घर में;
फिर क्यूँ लोग कराह रहा ? 
आज़ादी सिसकती गणतंत्र रो रहा.
नेता देश की 
जागीर बन गया 
मानो देश की तकदीर संवर गया,
पर कुर्सी केलिए नग्न नृत्य है हो रहा,
 आज़ादी सिसकती गणतंत्र रो रहा.
भाषणों से ही 
जन-जन का दिल है फूल उठा 
आश्वासनों की क़तारों से मन है झूम उठा,
पर मुँह के नीवाले भी नसीब नहीं हो रहा
आज़ादी सिसकती, गणतंत्र रो रहा.
जातिवाद का उन्मुक्त अश्व 
स्वक्षंद विचरण कर रहा
कहीं धर्म के नाम पर भाई-भाई है लड़ रहा
राजनीति में है स्वार्थ सिद्दी का बिगुल है बज रहा
आज़ादी सिसकती गणतंत्र रो रहा.
कर्णधार देश के रहम कीजिए,
बहुत चली एक आपकी शर्म कीजिए,
देख आपकी कर्तव्य परायनता,
नयनें अश्रु बहा रहा,
आज़ादी सिसकती गणतंत्र रो रह.
वक़्त है अब भी 
आप वो शमशीर संभालें,
इस गरिमा मंडित देश की तकदीर संवारें,
आपसे जन-जन अब है उब रहा,
आज़ादी सिसकती गणतंत्र रो रहा........
:-कन्हैया.
 
   
 
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