

है हृदय हिन्दी हिंद का, 
इसमें हज़ारों राग बसी, 
बिन साज़ो सज्जा के,
झंकृत होते मधुर तान यहीं.
लाखों को ले लपेटी 
मेम की मोह ने, 
वंध्या सी पड़ी अब 
यह निज गेह में. 
परदेशी स्वामी बन बैठा, 
देशी करता गुलामी उसकी, 
कहाँ से चली यह झोंका बोलो? 
स्वाधीन राष्ट्रमें एकचलतीकिसकी?
बुद्धिजीवी ही हैं 
इस शैतान की ज़ंज़ीर में, 
अपनी अब तो गैर बन गई, 
दिखावे की इस भीड़ में.
स्वतंत्रताकाबिगुलबजानेवालों पड़ही, 
पहला ये आघात है, 
कौन मुक्त कराएगा इसको 
जो भाषा नही संस्कृति आधारहै!!!!
:-कन्हैया 
 
    
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